Wednesday 24 August 2016

बंद कमरे में बंद ज़िंदगानी (कहानी)

18:00:00 Posted by Unknown No comments
बंद कमरे के अंदर की दुनिया के बारे में कोई नहीं जानता. सफेद दीवारें हैं वहां, कीलों पर कुछ नहीं टंगा है. दरवाज़े के पीछे एक ऐसी दुनिया है जहां से इस वक़्त ना कुछ शुरू हो सकता है, और ना ही कुछ खत्म. कमरे के अंदर दाखिल होते पैरों के निशां कमरे के ठीक बीचों-बीच घूमते-घूमते कहीं गायब हो जाते हैं. कहानी यहां से नहीं शुरू होती. कमरों के अंदर की कहानी बहुत पहले से शुरू होती है. शायद कमरों के बनने से पहले समतल ज़मीन भी एक कमरा ही होता है.



समाज से परे, चारदीवारों के बीच और इस गली में बना यह कमरा भी अपने आप में एक संसार है. थके हारे लोगों को यह राहत देता है. इस राहत में तन्हाईयों की शुरुआत है, इस राहत में एक भूख है. जो दिन के साथ शुरू होती है और खत्म ना होने के बजाये इस भूख में बस इज़ाफा होता जाता है.
बिजली कभी आती है, तो कभी जाती है पर उजाला कभी नहीं आता यहां. कमरे के अंदर एक पंखा है. आज इस पंखे पर बहुत ज़िदगानियों से जुड़ी एक ज़िंदगी बंध गई है. अभी यह पंखा सांसें दे रहा है, पंखा सुकूं दे रहा है. ना जाने बदले में क्या-क्या लेता है पंखा. कुछ बेशब्द-सी चीज़ ले लेता है सुकूं के बदले. पसीने को हवा कर देना, उफनती सांसों को धीरज देता है पंखा.
इन चारदीवारों के अंदर एक टेबल है, जिस पर बहुत से सपने कलम और डायरी तले दबे पड़े हैं. टेबल के भी चार पैर हैं, वो उन चार पैरों के सहारे अपने कंधों पर ना जाने किस-किस तरह का बोझ झेल रही है. शायद बहुत कम लोग इस बात से वाकिफ़ हैं कि ये टेबल चलती भी है. चलकर ही तो दुकान से यहां और यहां से कहीं भी जाने को तैयार है. इस टेबल के सीने पर जो भी लिखता है, वो इसकी काठी की वाह-वाही ही करता है. टेबल ने कभी इस बात पर गुमान नहीं किया, लेकिन कुर्सी हमेशा उसके सीने को अजीबोगरीब ताने देती रहती हैं. कुर्सी के भी चार पांव हैं पर वो अपने ऊपर दो पांवों वाले एक शख़्स को झेलती है इसीलिए अहंकार है ज़रा उसमें. अपने झूलने पर भी अकसर इतराती रहती है, पर कभी-कभी फिसलकर गिर भी जाती है और गिरा भी देती है. बेवफ़ा कुर्सी ने हमेशा टेबल की सपाट छाती पर ताने ही कसे हैं.
पंखा झूल रहा है, वो जानता है कि वो ही इन सबकी शान है पर वो शायद ये नहीं जानता कि इस कमरे में मौजूद हरेक चीज़ को मौन कर सकता है. जिन लहराती हवाओं पर उसे नाज़ है, जब वो थमती हैं तो उसकी कोई औक़ात नहीं रह जाती. जब तक कमरा बंद है तब तक पंखे की कोई औक़ात नहीं है. जैसे ही कमरे में थका शरीर आया और उसने बटन दबाया तो पंखे के वारे-न्यारे हो जाते हैं. अपने तीन हाथों से वो हवाओं को तोड़ता है और अपनी नीचे लेटे शरीर की ओर मोड़ देता है. टेबल पर सो रही धूल जाग जाती है, कुर्सी को सांसें मिल जाती हैं. ज़मीन ठंडी होने लगती है, उसका अहसास कुर्सी के कदमों को होता है. कमाल... सब पंखे का ही है.
आज कमरे में फिर वो थका-हारा शरीर आता है. कमरा बहुत दिलासा देता है उसे रोज़ की तरह. पंखे का बटन दबते ही वो अपनी हवा से उसके थके हारे अरमानों की दवा करता है. टेबल पर पड़ी क़िताबें उसे फिर से उठने को मजबूर करती हैं. बाहरी दुनिया ने हमेशा इस शरीर को झंझोड़ा है, इसके इरादों को रेज़ा-रेज़ा तोड़ा है. कमरा हमेशा ही राहत देता है थके शरीर को. मां की तरह उस शरीर को आश्वस्त करता है. टेबल जानती है कि आज रात भी वो उसके सीने पर अपनी दर्दभरी डायरी रखकर कलम से दिन की सारी शिकायतें दर्ज करेगा. अपने गम वो पहले इस टेबल पर बिखेरता है, लिखने के बाद जब वो इस टेबल पर हाथ रखकर रोता है तो आंसू के कुछ कतरे टेबल को भी भिगो देते हैं. अकसर टेबल ने भी उसे अपने दर्द सुनाने चाहे हैं, पर शरीर के दर्द के सामने टेबल का दर्द छोटा पड़ जाता है.



आज कुछ भी करने से पहले बिजली चली गई. उजाले से दूर कमरा घने अंधेरे की बाहों में चला गया. पंखा थम गया, कुर्सी आज भी काम आई पर बैठने के लिए नहीं, खड़े होने के लिए. वो कुर्सी पर चढ़ा, रस्सी लटकाकर पहले पंखे के गले में बांधी और फिर अपने गले में. कमरा कुछ नहीं कर पाया, टेबल पर किताबें बस धरी रही, कुर्सी नीचे औंधे मुंह गिर गई. आज एक थके शरीर के साथ कमरा, कुर्सी, पंखा और टेबल भी मर गये.




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